Tuesday, August 3, 2010

गले में झूलता हुआ लाकिट ही उठा लूँ...


पंछियों को अपना ठिकाना तो चाहिए,
घर वापसी का कोई बहाना तो चाहिए.

माना हमारे जाने की परवाह नहीं है,
दरवाजे तलक आपको आना तो चाहिए.

आपका हर राज़ बेशकीमती ठहरा,
हमराह को हमराज़ बनाना तो चाहिए.

गले में झूलता हुआ लाकिट ही उठा लूँ,
लाकिट ही सही नाज़ उठाना तो चाहिए.

वफ़ा अगर ना हो तो ज़रा बेवफाई हो,
रिश्ता ये मोहब्बत का निभाना तो चाहिए.

आ जा कि उँगलियों से तेरी ज़ुल्फ़ सवारूँ,
दीवाना हूँ ये काम भी आना तो चाहिए.

दौलत से भरी होगी तिजोरी ये तुम्हारी,
तिल कोई मुट्ठी में समाना तो चाहिए.

बहर रदीफ़ काफियों का काम कुछ नहीं,
कहने को ग़ज़ल कोई फ़साना तो चाहिए.

अब कहाँ नीलकंठ होते हैं...


हसीन रात कर या चुप हो जा,
प्यार की बात कर या चुप हो जा.

गरज़ता है सुबह से शाम तलक,
या तो बरसात कर या चुप हो जा.

अब कहाँ नीलकंठ होते हैं,
खुद को सुकरात कर या चुप हो जा.

माना पत्थर है, मैं तो पूजूंगा,
आरती साथ कर या चुप हो जा.

बना है सारथी जो अर्जुन का,
शंख का नाद कर या चुप हो जा.

आग चूल्हे की ना बुझ पाए कभी,
ऐसे हालात कर या चुप हो जा.

हैं ग़ज़लकार कई सारे यहाँ,
खुद को उस्ताद कर या चुप हो जा.

अब जिंदगी में कोई अमावस की शब् नहीं...


बिना बताये चल दिए तो कुछ अजब नहीं,
कशिश तुम्हारे प्यार में पहले सी अब नहीं.

हैं और भी तो काम मुहब्बत से ज़रूरी,
इक मैं ही जिंदगी की ज़रूरी तलब नहीं.

ये वस्ल क्या ये प्यार की नजदीकियां कैसीं,
नज़र से नज़र तो मिली है लब से लब नहीं.

चाँद बनाया तुम्हें और सोचते रहे,
अब जिंदगी में कोई अमावस की शब नहीं.

चादर पे सिलवटों को बनाते मिटाते हैं,
रातें गुज़ारने का और कोई ढब नहीं.

इसी हिसाब में ये पूरा दिन निकल गया,
कब याद तुम करोगे हमें और कब नहीं.