Friday, September 11, 2009

नफे का हिसाब हो गई...



प्यार में ऐसे खिली गुलाब हो गयी,
परछाई उसकी एक माहताब हो गयी.

होंठ पे सजाया उसको गीत बना के,
इस तरह पढ़ा कि वो किताब हो गयी.

उसको पा के और मैंने क्या नहीं पाया,
लो वो सिर्फ नफे का हिसाब हो गयी.

पहेलियों कि तरह उसको बूझता हूँ मैं,
बर्फ कभी बिजली कभी आब हो गयी.

होश उसने छीन लिए लबों को छूकर,
जाम में डाली हुई शराब हो गयी.

ढलती हुई उम्र मेरी उसने थाम ली,
बालों में लगाया हुआ खिजाब हो गयी.

आवाज तेरी सुनके घर को लौटता हूँ मैं,
क्या करूँ आदत मेरी खराब हो गयी.

Thursday, September 3, 2009

इस बरस नहीं हुई...



ईद चाँद के लिए बेबस नहीं हुई,
जब से तुम मिली हो अमावस नहीं हुई.

चादर की सिलवटें भी यूँ चुभती रही हमें,
वो अगर हमारी हमनफस नहीं हुई.

चाँद को हथेलियों में भर के पी लिया,
कम किसी तरह भी ये हवस* नहीं हुई. *प्यास

प्यार की बरसात है जी भर के भीग लो,
फिर ना ये कहना की इस बरस नहीं हुई.

फ़कीर बन के मांग लिया तुमको खुदा से,
दुआ कोई फ़कीर की वापस नहीं हुई.

Tuesday, September 1, 2009

घिरा रहता हूँ...

अजब से मकडी के जालों में घिरा रहता हूँ,
मैं सुबहो-शाम बवालों में घिरा रहता हूँ.

कभी सुलझाता हूँ इसको कभी हल करता हूँ,
मैं जिंदगी के सवालों में घिरा रहता हूँ.

और कुछ सोचने का वक़्त है ना ताकत है,
पेट भरने के निवालों में घिरा रहता हूँ.

पाँव भीगे हुए रहते हैं हमेशा मेरे,
फूटकर बह रहे छालों में घिरा रहता हूँ.

तेरे सिवाय मुझे कुछ नज़र नहीं आता,
मैं अक्सर तेरे ख्यालों में घिरा रहता हूँ.

सुकून मिलता है बस महफिले सुखन में मुझे,
सो शायरी के रिसालों में घिरा रहता हूँ.

तो आ जाऊँगा...



मुझको सीने से लगाओगे तो आ जाऊंगा,
तुम अगर दिल से बुलाओगे तो आ जाऊँगा.

तेरे आँचल के सितारों से शिकायत है मुझे,
तुम वहाँ मुझको सजाओगे तो आ जाऊँगा.

हर तरफ रात की खामोशी है, सन्नाटा है,
घुंघरू पायल के बजाओगे तो आ जाऊँगा.

बिंदिया माथे की ना बनाओ कोई बात नहीं,
तिल जो काँधे का बनाओगे तो आ जाऊँगा.

गीत लिख लिख के जमा कर लिए कई सारे,
तुम अगर गा के सुनाओगे तो आ जाऊँगा.

मैं तो जुगनू हूँ अंधेरों में नज़र आता हूँ,
बत्तियां घर की बुझाओगे तो आ जाऊँगा.

दूरियां अब सहन होती नहीं मुझसे दिलबर,
मुझमे पूरा जो समाओगे तो आ जाऊँगा.

बस रिश्तों को ढोते हैं...

प्यार का बीज जाने कौनसी मिट्टी में बोते हैं,
साथ रह कर भी कई लोग बस रिश्तों को ढोते हैं.

कोई कोशिश नहीं होती दूरियों को मिटाने की,
किसी उलझे हुए धागे में बस मोती पिरोते हैं.

इंसानी मरासिम में वो गरमी कहाँ रही,
रिश्ते भी महज़ कागजों में दर्ज होते हैं.

बेवफाई फिर उन्हें इतना सताती है,
दामन के दाग उम्र भर अश्कों से धोते हैं.

मुकरर्र है वक़्त हर एक हरकत का जहाँ में,
रात भर जगते हैं जो लोग दिन में सोते हैं.

मय-परस्ती इक बला है जानते हैं सब,
शिद्दत से पैमाने में सब खुद को डुबोते हैं.