Thursday, October 28, 2010

बंद मुट्ठी में ये ताकत कैसी...


इतना चुप रहने की आदत कैसी,
ये तब्बसुम से अदावत कैसी.

ये तो दुनिया है कहेगी कुछ भी,
इसमें इतनी बड़ी आफत कैसी.

जो पिघल जाए इक चिंगारी में,
कैसा वो प्यार,....मुहब्बत कैसी.

मेरी पेशानी को छू कर देखो,
प्यार से पूछो, तबीयत कैसी.

कोई ऊँगली न उठ सकी देखो,
बंद मुट्ठी में ये ताकत कैसी.

फैसला घर से लिख के लाता है,
कैसा मुंसिफ है, अदालत कैसी.

आइना तक भी तुमसे पूछता है,
हुई ये आपकी हालत कैसी.

तुम मेरे साथ रह के दूर रहो,
ये कैसा वस्ल, ये कुर्बत कैसी.

उम्र जिस मोड़ पे ला आई है,
अब कहाँ चैन अब फुर्सत कैसी.

Friday, October 1, 2010

दुनिया से थोड़ी देर को नज़रें चुरा के देख..


दुनिया से थोड़ी देर को नज़रें चुरा के देख,
हमको भी एक बार ज़रा मुस्कुरा के देख.

किसी का होके देख या अपना बना के देख,
रोते हुए की आँख से आंसू चुरा के देख.

चाँद समझ कर जिसे निहार रहा है,
चाँद की परछाई है पानी हिला के देख.

एहसास उसे छूने का कितना हसीन है,
उँगलियों से पीठ पे चींटी चला के देख.

स्वर्ग को अगर ज़मी पे देखना चाहे,
घर में कभी माँ-बाप के पाँव दबा के देख.

उम्र सारी खर्चनी पड़ेगी इसी में,
बस्ती जलाने वाले एक घर बना के देख.

खुशियाँ भी चल के आएँगी क़दमों में देखना,
आवाज़ दे के जोर से हमको बुला के देख.

सीने पे लाख ग़म लिए जीता है रात दिन,
सीने पे अपने यूँ कभी मुझको सुला के देख.

वीरान न हो जाए ये दुनिया तो बोलना,
तस्वीर इस दीवार से मेरी हटा के देख.

परवाज़ ख्यालों की तो फिर बेलगाम है,
बच्चों के साथ खेल में गैया उड़ा के देख.