Tuesday, March 16, 2010

दुआ कर लें...


आओ इस सर को झुका कर कोई दुआ कर लें,
चलो कि हाथ उठा कर कोई दुआ कर लें.

वक़्त बचता ही नहीं आजकल दुआ के लिए,
ज़रा सा वक़्त चुरा कर कोई दुआ कर लें.

सफे दुश्मन में जिनका नाम लिख लिया था कभी,
अब उनको अपना बनाकर कोई दुआ कर लें.

रेत का घर बनायें साथ मिल के बच्चों के,
और उस घर को सजा कर कोई दुआ कर लें.

अपने हिस्से में चंद रोटियाँ जो आईं हैं,
किसी भूखे को खिलाकर कोई दुआ कर लें.

बोझ नौ महीने तक उठाया तुम्हारा जिसने,
पाँव उस माँ के दबा कर कोई दुआ कर लें.

उसकी बेरुखी को क्या कहूँ..


उसकी बेरुखी को क्या कहूँ, अदा कह दूँ ?
वो बेवफा भी नहीं है कि बेवफा कह दूँ.

बीच मंझधार में लाकर जो मुझे छोड़ गया,
कोई बताए उसे कैसे नाखुदा कह दूँ.

और मैं कर भी क्या सकता हूँ ये पता है उसे,
किसी ग़ज़ल को गुनगुनाऊं या कत-आ कह दूँ.

पहले अजमाओ उसे मुझ पे मत यकीन करो,
मेरा क्या, मैं तो किसी को भी फ़रिश्ता कह दूँ.

लो बीत गयी रात अब वो पूछते हैं,
बात जो रात को कहनी थी वो सुबह कह दूँ.

बस यही हुआ होगा...


और होता भी तो क्या बस यही हुआ होगा,
ख्वाब में तुमने मुझे हौले से छुआ होगा.

तेरी यादों की नमी अब भी सताती है हमें,
कहीं आँगन में तेरी याद का कुआं होगा.

अपने आँचल को ना हिलाओ मुसलसल इतना,
अब न भड़केंगे ये शोले, धुंआ धुंआ होगा.

तार बिजली के हिले थे सुबह कुछ याद आया,
मेहमान आये हैं छत पर कोई कौआ होगा.

नगद खरीद के लाते हैं..


मुहब्बत में कोई भी पेचो ख़म नहीं रखते,
फ़क़त इंसान हैं कोई धरम नहीं रखते.

मोहब्बत बांटते हैं औ बदी से डरते हैं,
हिसाब अपनी नेकियों का हम नहीं रखते.

बाद मरने के ही जन्नत नसीब होती है,
और जी लेते अगर ये भरम नहीं रखते.

नगद खरीद के लाते हैं जिंदगी सुबहा,
बस अब उधार की कोई कलम नहीं रखते.

कहीं रोने न लगे माँ भी देखकर हमको,
चाहे कुछ भी हो अपनी आँख नाम नहीं रखते