Monday, December 31, 2012

नए वर्ष का हो अभिनन्दन।



नए वर्ष का हो अभिनन्दन।

पुष्प, दीप, कुमकुम और चन्दन,
नव दिनकर का सादर वंदन,
नव प्रभात में नई प्रभा से,
नए वर्ष का हो अभिनन्दन।
परिवर्तन के दीप जलाएं,
प्रावधान कुछ नए बनाएं।
आँख मूँद कर बैठे बरसों,
अब तो सावधान हो जाएँ।
आओ हिम शिखरों पर चढ़ के,
इंक़लाब का दें उदबोधन।

नए वर्ष का हो अभिनन्दन।



Wednesday, December 19, 2012

Story : क्या मिला यशोदा...

गर्मियों की लम्बी दोपहर बुढापे में कुछ ज्यादा ही लम्बी लगती है। शाम का इंतज़ार यूँ खाली बैठ कर कहाँ तक किया जाये। ये सोच कर उसने पलंग के नीचे रखे पुराने संदूक को बाहर निकाला और खोल लिया। सोचा "कपड़ों की तह खोल कर हवा लगा लूँ।" संदूक में था भी क्या ? कुछ कोरी साड़ियाँ जो कई सालों से कोरी ही रखीं थीं। एक-दो गर्म शाल, कुछ कागज़ात और खाकी कागज़ का एक लिफाफा। लिफाफे पर नज़र गई तो पता ही नहीं चला, कब लिफाफा खुला और एक फोटो हाथ में आ गया। उसके झुर्रियों से भरे चेहरे एक मुस्कराहट उभर आई। एक चल चित्र की तरह यादों की तस्वीर आँखों में तैरने लगी।

"बली माँ ! देखो कितने सारे बगुले" !

"हाँ बेटा ये बगुलों की बारात है".

"ये बगुले रोज़ शाम को बारात लेकर कहाँ जाते हैं" ?

"अपनी दुल्हन को लेने जाते हैं रे".

"ये शाम को ही क्यूँ जाते हैं बली माँ "?

"अरे पगले शादी तो शाम को ही होती है ना".

"शादी सुबह नहीं हो सकती क्या बली माँ "?
"ओफ्फोह कन्हैया अब सो जा। मेरे राजा बेटा, बहुत परेशान करता है तू। अगर चुपचाप सोयेगा नहीं तो वापस भेज दूंगी नीचे छोटी माँ के पास।"
हर शाम ये ही कहानी होती थी उसकी। वो गर्मियों में अक्सर छत पर ही अपनी चारपाई डाल लिया करती और कन्हैया रात को उसी के पास आ कर लेट जाता। खुली छत पर, आसमान में उड़ते बगुलों की कतार कन्हैया को आकर्षित करती और शुरू हो जाती बाल सुलभ प्रश्नों की बौछार। रोज़ कोई नया प्रश्न। रोज़ कोई नई कहानी बना कर समझाना पड़ता। जब कहानी सुनते सुनते थक कर सो जाता कन्हैया, तो वो आवाज़ लगाती "कन्हैया की माँ, इसे ले जाओ, सो गया है ये।" उस अकेली जान के लिए यही सब कुछ तो जीने का बहाना था।
कौन कहता है माँ के साथ औलाद का रिश्ता भगवान् बनाता है? कन्हैया भी तो उसे बड़ी माँ ही बुलाता था। कुछ रिश्ते बड़े अजीब होते हैं। कन्हैया से भी उसका ना कोई सगा रिश्ता था ना सौतेला। महज़ पडौसी का सम्बन्ध था। एक ही मकान में रहते थे। ग्राउंड फ्लोर पर कन्हैया के माता पिता और फर्स्ट फ्लोर पर वो अकेली जान। यूँ तो और भी कई परिवार थे उसे बड़े मकान में। कई बच्चे भी थे लेकिन ना जाने क्यूँ कन्हैया से ही उसे इतना लगाव था। कन्हैया था भी बहुत प्यारा सा। सांवला रंग, गोल चेहरा। शरारत भरी आँखें। अपनी तोतली आवाज़ में जब कन्हैया उसे 'बली माँ' कह कर पुकारता तो उसका मन रोमांचित हो उठता। उसका सारा वात्सल्य, सारी ममता उभर आती। उसे लगता जैसे बरसों की साध पूरी हो गयी है। उसका अपना बेटा उसे पुकार रहा है।
कन्हैया को देखे बगैर उसकी सुबह नहीं होती थी। जब तक कन्हैया उसके पास ना आ जाये चैन नहीं पड़ता था उसे। ना पूजा पाठ में मन लगता न काम काज में। ना कुछ खाने का मन होता ना बनाने का। यूँ भी वो ठहरी अकेली जान, न कोई खाने वाला ना खिलाने वाला। बड़े से मकान में अकेली बैठी क्या करे। घर की साफ़ सफाई भी कहाँ तक करे, और फिर कोई घर गंदा करने वाला हो तो साफ़ भी किया जाये। बस बार बार जा कर सीड़ियों तक देख आती और जब सब्र का बाँध टूट जाता तो सीडियों से ही आवाज़ लगाती - "कन्हैया की माँ, क्या बात है आज कन्हैया सो कर नहीं उठा क्या अभी तक।" कभी जवाब मिलता था और कभी नहीं।
कब से अकेली थी वो। अब तो याद भी करे तो याद नहीं आएगा। अकेलेपन में सात मिनट भी भारी लगते हैं उसने तो सत्तर बरस अकेले काटे हैं। माँ-बाप की यादें तो बाकि रही नहीं और अपने घर परिवार की यादें तो तब होती जब घर परिवार बनता। बनने से पहले ही उजड़ गया था उसका घर। वक़्त के बेरहम हाथों ने कब उसे अकेलेपन के कुंए में ढकेल दिया, न तो ये याद करने की ज़रुरत थी और ना ही हिम्मत। बस इतना याद है की जब से होश सम्भाला अकेले ही लडती आई थी। एक सरकारी स्कूल में पढ़ाते पढ़ाते कब जीवन ने बुढापे की चादर ओढ़ ली पता ही नहीं चला।
जीवन का आधा सफ़र तय कर लेने के बाद, कुछ परिचितों और शुभचिंतकों की सलाह के चलते, एक कोशिश की थी उसने भी जीवन को नई दिशा देने की। एक बेटा गोद ले कर। अपने दूर के रिश्ते की बहन के बेटे को गोद लिया था उसने। कानूनी रूप से गोद लिए बेटे को अपने कलेजे से लगा कर रखा। पढ़ाया-लिखाया, शादी करवाई। सोचा तो ये था कि जब वक़्त के थपेड़ों से दिये की लौ बुझने लगेगी तो कोई तो होगा संभालने वाला। इतना स्वार्थी होने का अधिकार तो होता है सबको। लकिन हुआ क्या? बेटे की सरकारी नौकरी लग गई और उसका बाहर तबादला हो गया। वो अपने बीवी बच्चों के साथ चला गया और एक बार गया तो फिर सिर्फ उसकी आवाज़ ही सुनाई दी उसे। कभी कभी फ़ोन करके हाल चाल पूछने तक ही सिमट कर रह गया रिश्ता। एक-दो बार कोशिश भी की थी बेटे ने अपना फ़र्ज़ निभाने की। उसे अपने साथ ले जाना चाहता था बेटा पर वो ही नहीं गयी बेटे के साथ। उसे स्वार्थ की बू आ गई थी शायद, या फिर जीवन के आखरी पड़ाव में बेटे पर बोझ बनना गवारा नहीं था उसे। वो फिर से अकेली ही रह गई थी।
इसी अकेलेपन को भरने की कोशिश का नाम था कन्हैया। जैसे खाली मकान में कबूतर अपना घौंसला बना लेते हैं ठीक उसी तरह से कन्हैया ने भी उसके जीवन में घर कर लिया था। पता ही नहीं चला कब वो कन्हैया की मुंह बोली माँ बन गयी, यशोदा की तरह। जब कन्हैया पैदा हुआ तो उसका रंग देख कर उसने ही बच्चे को कन्हैया नाम दिया था। बच्चे के माँ-बाप भी बहुत सम्मान करते थे उसका। उन्होंने भी उसी नाम को स्वीकार कर लिया और वो अनजाने में ही यशोदा बन गई। कन्हैया भी सगी माँ से ज्यादा चाहता था उसे। हर वक़्त उसी के साथ रहना। उसी के साथ घूमना, उसी के हाथ से खाना, उसी के पास सोना।

लेकिन समय के साथ प्राथमिकतायें भी बदलती हैं और हालात भी। कन्हैया थोडा बड़ा हुआ, समझदार हुआ तो उसे नए दोस्त मिले, नई दुनिया मिली। अपने सहपाठी यार दोस्तों में मग्न हो गया कन्हैया। कन्हैया के माँ-बाप ने भी मकान बदल लिया। धीरे धीरे मिलना जुलना कम होने लगा। फिर कन्हैया को भी मिल गई कोई राधा। कन्हैया भूल गया यशोदा को। एक और यशोदा ने कन्हैया को बेटा बनाया। एक और यशोदा अकेली रह गई। क्या मिला था उस यशोदा को और क्या मिला इसे।

हाथ में पकडे फोटो को आँचल से सहलाया और संभाल कर रख दिया संदूक में। दोपहर कट चुकी थी। शाम होने को थी। उस दिन की भी और जीवन की भी।

Wednesday, December 12, 2012

अखाड़े कागज़ के...

कागज़ के अखाड़े खोल रखे हैं मैंने,

आड़ी तिरछी लकीरें उंडेलता हूँ दिन भर,
रोज़ कुछ नए सूरमा आते हैं लफ़्ज़ों के
दम भरते हैं अपने अपने हुनर का,
अलग अलग बनावट और रंग रूप लिए
डील डौल भी अलहदा हैं सबके,
कोई गोल-मटोल पप्पू हलवाई सा
तो कोई बांका तिरछा बांके लाल,
बड़ा कसैला सा स्वाद है किसी का और कोई
मिसरी सा घुल जाता है ज़बां पर,
तीर सा चलाता है कोई दिल पर तो
कोई रूह को सकून देता है बेइंतिहा,
किसी किसी के बड़े अजीब होते हैं मानी
और कोई शबनम सा नाज़ुक और फ़ानी।

आँख मूँद कर देखता रहता हूँ इनकी कुश्तियां
उठा पटक, खींच तान,  दांव पेच और मस्तियाँ,
कभी कोई इसको खींच कर धकेलता है पीछे
कोई उसको नीचे पटक देता है धपाक से,
बेइंतिहा शोर शराबा, हो हल्ला जैसे कोई
जंग-ऐ-क़यामत अल्लाह रे अल्लाह।

तभी किसी रेफरी की तरह
'रदीफ़' और 'काफिये' पे सवार
अचानक आ जाती है 'बहर'
सारी पहलवानी काफूर हो जाती है इनकी
मुंह छिपा कर दौड़ते हैं सभी हर्फ़
घबराते शरमाते होते हलकान
कागज़ी अखाड़ा हो जाता वीरान।

ज़हन में फिर कहीं छिप जाते हैं अलफ़ाज़
कागज़ पर रह जाती हैं चंद सिलवटें,
अधमरे अलफ़ाज़, अनसुनी आहटें

मेरे पहलवान जीत क्यूँ नहीं पाते ???