Wednesday, May 5, 2010

बेटियां...



पुरानी एक ये कहानी है,
चाँद पर कोई बुढ़िया नानी है.

नूर आँगन का घर की रौनक है,
बेटी तो चाँद आसमानी है.

मेरी झोली में चाँद आके गिरा,
ये सितारों की मेहरबानी है.

उसे साड़ी में देख कर यूँ लगा,
हुई बिटिया भी अब सयानी है.

आज जी भर के प्यार कर लूँ उसे,
बेटी है, घर पराये जानी है.

घर तो वो ही बनेगा घर, जिसमें,
एक बेटी की हुक्मरानी है.

कोई बेटी नहीं है जिस घर में,
दर-ओ-दीवार उसके फ़ानी है.

Monday, May 3, 2010

लगा के पंख उड़ गए ख़ुशी के पल सारे...



इन दिनों तेरी अदाओं पे ये पहरा क्यूँ है,
किसी मुरझाये हुए फूल सा चेहरा क्यूँ है.

बाल जूडे में बाँध रखे हैं तूने कब से,
फिर मेरे घर में इतना गहरा अँधेरा क्यूँ है.

चाँद से चेहरे को आँचल में छिपा रखा है,
आज पूनम है, तो ये चाँद अधूरा क्यूँ है.

लगा के पंख उड़ गए ख़ुशी के पल सारे,
ये ग़म का वक़्त वहीँ का वहीँ ठहरा क्यूँ है.

मेरे अदू को महज़ एक परेशानी है,
मेरी आँखों में कोई ख्वाब सुनहरा क्यूँ है.